Monday, September 19, 2011

परम्पराओं का त्याग न करें




हमारे भारत मे सभी त्योहार , समारोह ,पूजा पाठ इत्यादि बड़े ही परंपरागत तरीके से मनाए जाते है।
परंतु आज के समय को देखें तो लगता है कहाँ है परम्पराएँ ? क्या  ये वही भारत है जहां की परम्पराओं का पूरा विश्व कायल हुआ करता था? हमने पाश्चात्य देशों की नकल कर ली और अपनी सभ्यता ,संस्कृति ,परम्पराएँ सब छोड़ दिये । इसी बदलाव की बयार को हमने नाम दिया परिवर्तन का । ऐसा नहीं है कि परिवर्तन नहीं होना चाहिए । परिवर्तन भी जरूरी है ,लेकिन अपनी सभ्यता ,संस्कारों, परम्पराओं की कीमत पर नहीं । एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ :- हमारे यहाँ जन्म दिवस पर बच्चों को बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद , संत महात्माओं के दर्शन कराकर उनके आशीर्वाद लेने की परंपरा थी । देव मंदिर मे जाकर दर्शन करने या घरों मे ही देवर्चन इत्यादि समारोह मनाए जाया  रते थे।  बच्चों को घर के बुजुर्ग टीका लगाकर दूध पिलाकर दीर्घायु होने का आशीर्वाद देते थे । दीपक जलाकर सुखी ,मंगलमय एवं लंबी आयु की कामना की जाती थी । किन्तु आज समय बदल गया है ,पश्चिमी देशों की नकल करके केक कटवाई जाने लगी है ज्योत जलाने के स्थान मोमबत्तियाँ बुझवाई जाती है । यहाँ तक कि मैंने कई जगहों पर देखा है कि बच्चों के मुंह पर केक की क्रीम पोती जाती है और ऐसा उनकी माँए ही करना आरंभ कर देती है, तत्पश्चात बाकी मेंहमान भी वैसा ही शुरू कर देते है , ऐसा लगता है कि केक खिलाते समय हाथ में लगी क्रीम कहाँ पोछी जाए तो उसके गालों पर ही पोंछ कर हाथ की सफाई कर ली हो । ये कैसी परंपरा है? दूसरा उदाहरण :- शादी विवाह भी एक समारोह हुआ करते थे पूरा एक सप्ताह तरह 2 के कार्यक्रम होते थे । नाते रिश्तेदार सब एकजुट होकर  सभी कार्यक्रमों में भाग लेते थे । अब न किसी के पास समय ही है न किसी को को लगाव । परम्पराओं के नाम पर केवल खानापूर्ति ही रह गई है ।
पूजा पाठ में भी बस किसी तरह फटाफट काम हो जाये । लगता है सारा समय यहीं खर्च हो जाएगा ।
हाँ एक काम जरूर हुआ शराब का जम कर प्रयोग किया जाने लगा मानो अब यही परंपरा शेष रह गई थी , या ये परिवर्तन का कोई नया रूप है ।     

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